मनुष्य को शांति और आनंद का अनुभव तभी हो सकता है जब कि वह अपने आप को सत्ता सामान्य मे स्थित कर लेता है | जब तक मनुष्य विकारवान नाना पदार्थो मे अपना अहनभाव रखता है तब तक उसे शांति और परमानंद की प्राप्ति नही हो सकती | इस विषय पर वासिष्ठ जी ने रामचंद्र जी ने उपख्यन सुनाया जो इस प्रकार है –
गंदमादन पर्वत पर उद्धालक नाम का एक युवक मुनि वास करता था | एक समय उसके मान मे यह विचार उत्पन्न हुया की अभी तक उसको शांति और आनंद का अनुभव नही हुया उसके लिए प्रयत्न करना चाहिए, क्योकि मनुष्य जीवन का परम उद्देश् वही है | इंद्रियो के भोग भोगने से मनुष्य को कभी तृप्ति नही हो सकती |
मनुष्य को तो वह वस्तु प्राप्त करनी चाहिए जिसको प्राप्त कर लेने पर और कुछ प्राप्त करना ही नही रहता | मनुष्य का ध्येय तो वह स्थिति है जिसमे अनंत आनंद और परम शांति का अनुभव हो और दुख सुख और मो का लेश भी ना हो |
यह सोचकर उद्धालक ने निष्काम तप करना आरंभ किया | कुछ दिन तक ताप करने और यम और नियम मे स्थित रहने से उसका मन शुद्ध और विवेकवान हो गया | अब उसने मान को विषयो के पीछे दौड़ने से तुझे क्या सुख मिलता है | यदि तू विचार करके देखे , तो तुझको यह स्पष्ट हो जाएगा की विषयो द्वारा सुख की आशा करना ऐसा ही है जैसा की प्यासे मनुष्य का मृगतृष्णा के दौड़ता है वे सब दुखदायी ही सिद्ध होते है | किसी विषय को प्राप्त कर लेने पर ऐसी तृप्ति नही होती की फिर और किसी विषय की इच्छा न हो | जिस विषय को तू प्राप्त कर लेता है, उसी से तुझे थोड़े ही काल पीछे घृणा हो जाती है | यदि वह विषय सुखदायी होता तो उससे घृणा हो जाती है | यदि वह विषय सुखदायी होता तो उससे घृणा क्यो होती ? इसलिए विषयो के लिए वासना छोड़कर उस .आत्मपद मे स्थित होने का प्रयत्न कर, जिसमे स्थित हो जाने पर अतुल अक्षय और अनंत आनंद की प्राप्ति होती है |
इस प्रकार के विचारो द्वारा जब उसका मन शांत हुआ तो उद्धालक ने आत्म विचार आरंभ किया और अपने से यह प्रश्न पूछा ?
मै क्या हू ? नही ! क्योकि मेरा आत्मभाव तो सदा एक रूप है , और प्रकाश रूप है, विषय नाना है, विकारमान है, और मेरे ज्ञान का विषय है | शरीर भी मै नही हू क्योकि यह भी मेरे ज्ञान का विषय है | मै इसको अपना कहता हू, यह विकार है, उत्पत्ति और नाश है | आत्मा किसी दूसरे ज्ञान का विषय नही है | स्व संवेद्य है | आत्मा के अनुभव मे कभी भी विच्छेद नही होता है | शरीर का अनुभव तो सुषुप्ति अवस्था मे होता ही नही | क्या मै मन हू? यह भी कहना ठीक नही है | मन भी आत्मा का विषय है, विकारवान है और मन का अनुभव भी अविच्छिन्न रूप से नही होता | सुषुप्ति अवस्था मे मन का अनूभव तो सब अवस्थाओ मे होता | सुषुप्ति अवस्था मे मन का अनूभव नही रहता किंतु आत्मा का अनुभव तो सब अवस्थाओ मे रहता है | वह सदा ही अपनी सत्ता मे स्थिर है | उसका न कोई आदि है और ना कोई अंत | वह सदा ही अपनी सत्ता मे स्थिर है | उसका अनुभव तभी हो सकता है जबकि सब विषयो से आत्मभाव हटाकर आत्मसत्ता मे अपने आपको स्थिर कर जाए |
कुछ काल पीछे निर्विकल्प समाधि टूटी और वह जाग्रत अवस्था मे आया | अब उसकी दृष्टि वही हो गयी | उसके चित्त मे वही शांति और वही आनंद था | अब उसको जाग्रत अवस्था मे भी आत्म्भाव का अनुभव किया था | अब उसको जाग्रत अवस्था मे भी आत्मभाव का अनुभव होता था और उसकी स्थिति उस सत्तासामान्य मे थी जो की सदा और सर्वत्र एक रूप मे स्थिर है , जो सब ही वस्तुओ का परम स्वरूप है और जिसमे आनंद और शांति अविच्छन्न रूप से वर्तमान है | इस अवस्था को चारो चारो अवास्थाओ – जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, समाधि से परे की अवस्था, अर्थात तूर्यातीत अवस्था कहते है | इस अवस्था मे स्थित हो जाने पर मनुष्य को और किसी स्थिति के प्राप्त करने की इच्छा नही रहती | उद्धालक ने इस प्रकार अपने को सत्तासामान्य मे, जो की चारो अवस्थाओ का आधार है, स्थिर करके जीवन्मुक्त रूप से अपना शेष जीवन बिताया |